________________
पंचम खण्ड
काम भोग क्रीड़ा मन करता जे बांधई हरखते ।
वेर वेर ते हिज भोगवतां, क्रोध कपट माया मद भूले, भूरि मिथ्यात कहे देवचंद्र सदा सुख दाई, जिन धर्म एक
उपदेश - पद
( राग - धन्या श्री )
नवि छूटे विलव तै ॥ मे० ||३||
मेरे पीउ' क्युं न प्राप विचारो ।
कैसे हो कैसे गुन धारक, क्या तुम्ह लागत प्यारो || मे० ॥ १ ॥ .
तजि कुसंग कुलटा ममता को, मानो वैरण हमारो |
जो कछु झूठ कहूं इह कुनारि जगत निरमल रूप अनूप
भमंते । एकांते ॥ मे ||४||
इनमें तो, की चेरी, बाधित, प्रातम गुण संभारो || मे० ||३||
मो कुं सूंस तुहारो || २ || १|| याको संग निवारो ।
मेटि प्रज्ञान क्रोध दशम गुरण, द्वादश गुण भी टारो ।
I
अक्षय अबाध अनंत अनाश्रित, राजविमल पद सारो || मे० ॥४॥
१- प्रीतम जीव
२-वचन
४ -१२वां गुणस्थान भी टालकर
Jain Educationa International
[ १३६
द्र पद
प्रतम भाव रमो हो चेतन ! प्रतम भाव रमो ।
परभावे रमत्ता हो चेतन ! काल अनंत गमो ॥ हो चेतन ॥ १ ॥
३- प्रज्ञान क्रोधादि को दशवे गुणस्थान में टालकर
।
५ - राजविमल श्रीमद् का ही दीक्षा- नाम है ।
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org