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१४८ ]
बीमदू देवचन्द्र पद्य पीयूष
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दीपचंद पाठक प्रवर, पय' वंदी अव दात' । सार श्रमण गुरण भावना, गाईश प्रवचन मात ।।२।। जननी पुत्र सुभंकरी,' तिम ए पवयण माय । चारित्र गुण गण वर्द्धनी, निरमल शिव सुखदाय ।।३।। भाव अयोगी करण रुचि, मुनिवर गुप्ति धरंत । जो गुप्ते न रही सकें, तो समिते विचरंत ।।४।। गुप्ति एक संवर मयी, उत्सर्गे परिणाम । संवर निर्जरा समितिथी, अपवादे गुण धाम ।।५।। द्रव्ये द्रव्यत: चरणता, भावे भाव चरित्त । भाव दृष्टि द्रव्यतः क्रिया, करतां शिव संपत्त ।।६।। आतम गुण प्राग्भाव' थी, जे साधक परिणाम । समिति गुप्ति से जिन कहें, साध्य सिद्धि शिवठाम।।७।। निश्चय करण रुचि थई, समिति गुप्तिधर साध । परम अहिंसक भाव थी, पाराधे निरुपाधि ।।८।। परम महोदय साधवा, जेह थया उजमाल । श्रमरण भिक्षु माहरण यती, गावं तसु गुरण माल ।।६।।
१--चरण २-उज्ज्वल-पवित्र ३-भला करने वाली ४-प्रवचनमाता५ समिति और तीन गुप्ति । जैसे माता पुत्र का हित करने वाली होती है वैसे ही यह प्रवचन माता चारित्र रुपी पुत्र-रत्न की जननी, हितकारिणी, गुणों को बढ़ाने वाली और मोक्ष देने वाली है। ५-एकांत से ६-निश्चयमार्ग ७-व्यावहार में -आत्मस्वरुप की और लक्ष्य रखते हुए समिति गुप्ति आदि का पालन करने से मोक्ष प्राप्त होता है। -प्रगट होना
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