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पंचम खण्ड
उदित पर्याप्ति जे वचन नी, ते करी श्रु त अनुसार रे । बोध प्राग्भाव सिज्झाय थी, वली करें जगत उपगार रे ॥सा०॥४॥ साधु निज वीर्य थी पर तणो, नवि करें ग्रहण ने त्याग रे । ते भणी वचन गुप्ति रहें, एह उत्सर्ग मुनि मार्ग रे ॥सा०॥५॥ योग' जे आश्रव पद हतो, ते करयो निर्जरा रूप रे। लोह थी कंचन मुनि करें, साधता साध्य चिद्रूप रे सा०।६।। आत्महित परहित कारणे, आदरें पंच' सिज्झाय रे । तेह भणी असन वसनादिका, आश्रये सर्व अपवाय रे ।।सा०॥७॥ जिन गुण स्तवन निज तत्व नी, जीईवा करे अविरोध रे ।. देशना भव्य प्रति बोधवा, वायणा करण निज. बोध रे।।सा०॥७। नय गम भंग निक्षेप थी, सहित स्याद्वाद युत वाण रे । सोलह दस चार गुण सुं मिली, कहै अनुयोग सुपहाण रे।।सा०।६।
१-जैसे पारसमरिण के संग से लोहा स्वर्ण बन जाता है, वैसे मोक्ष की साधना करते हुए मुनियों ने प्राथवरुप योगों (कर्मबंध के हेतु रूप) को भी निर्जरा का कारण बना लिया है। २-पांच प्रकार की स्वाध्याय-१ वाचना २ पच्छा ३ परावर्तना ४ अनुप्रेक्षा ५ धर्मकथा ३-प्रात्मस्वरुप को ४-देखने के लिये ५-चांचन ६-तीनलिंग+तीन काल । तीन वचन (एक द्वि और बहुवचन)+दो प्रमाण (प्रत्यक्ष और परोक्ष) + स्तुतिमय । निन्दात्मक + स्तुति-निन्दात्मक + निन्दास्तुतियुक्त+एवं अध्यात्मम वचन-१६ गुण । ७-दस गुण-१ जनपद सत्य २ सम्मत सत्य ३ स्थापना सत्य ४ नाम सत्य ५ रूप सत्य ६ प्रतीतिसत्य ७ व्यवहार सत्य ८ भावसत्य : योगसत्य १० उपमासत्य । -चार गुग्ग-आक्षेपणी, विक्षेपणी, उत्त्सर्गमार्ग है, एषणासमिति उसका अपवाद है।
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