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धीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष
घात करे तृण नी परे, रे चोर भणी सह लोक । पंडित पण मूरख हुवे से, मुनि पण पामे शोक ।।चतुर०॥शा घोर नरक दुख दे सही रे, चोरी केरी बुद्धि । एहनी संगति ते तजे रे, जे चाहे निज शुद्धि ॥चतुर०।१६।। गिरि गुफा रण में पड्या रे, पर धन लीजे नांहि । तृण सम पण पर वस्तुनी रे, मत मन धरने चाहि।।ततु०।७।। शिव सुखनी जो चाह छे रे, राखण चाहे धर्म । सुख चाहे इण पर भवे रे, तो तज एह कुकर्म ॥चतुर० ।।८।। विरति' मूल यम साख छे रे संयम दल सम फूल । पंडित जन पंखी अछे रे, फल ते ज्ञान अमूल ।।चतु०।।६।। धर्म वृक्ष एहवो दहे रे, चोरी मत मन आणि ।। पर उपगारी पादरो रे, देवचंद्र नी वाणि ।।चतुर०॥१०॥
ब्रह्मचर्य सज्झाय
(बंधव गज थी उतरो-ए देशी) कूड़ कपट घर ए त्रिया, तिन को संग निवार रे भाई । मैथुन दुख दायक तजी, आतम गुण संभार रे भाई ॥१॥ नारी संग तजो तुमे, नारी दुःखनी खाण रे भाई । नारी संगे दुःख हुवे, ए श्री जिनवर वारण रे भाई ।।नारी।।२।।
१-धर्मरुपी वृक्ष का मूल-विरति, अहिंसादि व्रत-शाखा है, संयम-फूल पंडितजन-पक्षी, ज्ञान-फल है।
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