________________
तृतीय खण्ड
अतीत अनागत वर्तमान, कल्याणक संतति । पागधो पंचास अहिय, इग सय शुभ परिणति ॥ काल अनंते रीत एह, गुण जेह मनोहर । परमातम सेवन नमन, परमारथ सुख कर · ॥३॥ दर्शन ज्ञान चारित्र वीर्य, तप गुण अाराधन । अक्षय अव्यय शुद्ध सिद्धि समता पद साधन ।। कल्याणक पाणंद कंद, सुरतरु जे भक्त । आराधै तमु प्रात्म भाव थायै सवि व्यक्त ।।४।। तीर्थ तीर्थ कर साधु संघ आराधन निर्मल । जनम महोच्छव प्रमुख भक्ति करतां हुवै शिवफल ।। देवचंद्र जिनराय पाय प्रणमो अति रीझे । परम महोदय ऋद्धि सिद्धि मन वंछित... सीझै ॥५॥
छप्पन दिश कुमरी का महोच्छव सुरनर असुर तती' नम्यो, प्रणमी श्री जिन चंदो जी। नाण चरण गुरण करण थी, जीतो मोह महिंदो जी ।।
जीतीयो, मार अपार दुरजय जेण समता अनुसरी । - तसु भगति करतां भवि अनेक मुगति सुगती आदरी ।
-पंक्ति
२-काम
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org