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श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष
भात' चारि नो सर्व नें, तुम्हें कीधो अंतरायो रे।। तीब्र रसे जे बांधीयों, तसु विपाक ए आयो रे ।।ध०।।११।। मुनिवर अभिग्रह प्रादरयो, एह करम क्षय कीधे रे । लेस्यु हवे आहार नै, धीरज कारज सीधै रे ॥ध०।।१२।। मास गया षट ईण परै, पिण मुनि समता लीनो रे । अग पाम्यै अति निर्जरा, जाण तिण नवि दीनो रे ।।३०।।१३।। वासुदेव' जिन वंदि नै, पूछे धरि पाणंदो रे । साधक साधु में निरमलो, कवण कहो जिणचंदो रे ।।ध ०।।१४।। नेमि कहै ढंढगग मुनि, संवर निरजरा धारी रे । सहू साधु थकी अधिक छे. समता सुद्ध विहारी रे ॥ध०।।१५।। निज घर प्रावतां नरपते, वंद्यो मुनि शम कंदो रे । दीठो तब इक गृहपति, पाम्यो हरख अानंदो रे ।।ध ०।।१६।। मुनि अाव्या तसु अंगगौ, पडिलाभ्या मन रागे रे । । मोदक सूझता मुनि ग्रही, चढते मन वैरागे रे ।।१०।।१७।। जिन वंदी ने पूछीयो, तूटो ते अंतरायो रे ।
नाथ' कहे यदुनाथ ने, कारण थी तुम्हे पायो रे ।।ध०।।१८।। पाठान्तर- + अमंदोरे
१-चारा-गानी का अन्तराय करने से। २-फल ३-अन्तराय कर्म क्षय होने पर ही ग्राहार ग्रहण करूंगा, ऐसी प्रतिज्ञा ग्रहण करी ४-श्रीकृष्ण । ५-नेमिनाथ ६-श्रीकृष्ण
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