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पंचम खण्ड
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साधु सज्झाय
साधक साधजो रे, निज सत्ता एक चित्त । निज गुण प्रगट पणे जे परिणमें रे, एहिज आतम वित्त ।।सा०॥ १।। पर्याय अनंता निज कारिज पणे रे, वरते ते गुण शुद्ध । पर्याय गुण परिणाम कर्तृता रे, ते निज धर्म प्रसिद्ध ।।सा०॥२॥ परभावानुग' तवीरज चेतना रे, तेह वक्रता चाल । करता भोक्तादिक सवि शक्ति मां रे, व्याप्यो उलटो ख्याल ।सा०॥३।। क्षयोपशमिक ऋजुता ने ऊपनें रे, तेहिज शक्ति अनेक । निज स्वभाव अनुगतता अनुसरे रे, आर्जव भाव विवेक ॥सा०।।४।। अपवादे पर वचकतादिका रे, ए माया परिणाम । इत्सरगे निज गुण नी वंचना रे, परभावे विश्राम ॥सा०॥५॥ ते वरजी अपवादै आर्जवी रे, न करे कपट कषाय । तम गुण निज निज गति फोरवे रे, ए उत्सर्ग अमाय ।।सा०॥६॥ सा रोध भ्रमण गतिचार में रे, पर आधीने वृत्ति । चाल थी पातम दुख लहे रे, जिम'नृपनीति विरत्ति ।सा०॥७॥ टें मुनि ऋजुतायै रमे रे, वमे अनादि उपाधि । ता रंगी संगी तत्व ना रे, साधे आत्म समाधि ॥सा०॥८॥
वीर्य का परभावों की और लगना, यह उसकी चाल का टेड़ापन है । रहित राजा जैसे दुखी होता है।
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