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श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष
माया क्षये प्रार्जवनी पूर्णता रे, सवि गुरण ऋजुतावंत' । पूर्व प्रयोगे परसंगी परणो रे, नहीं तसु करतावंत ॥ सा० ॥ ॥ साधक भाव प्रथम थी नीपजे रे, तेहिज थायै सिद्ध । द्रव्यत साधन विघन निवारणारे, नैमित्तिक सुप्रसिद्ध || सा० ॥ १०॥ भावे साधन जे इक चित्त थी रे, भाव साधन निज भाव । भाव सिद्ध सामग्री हेतु ते रे, निस्संगी मुनि भाव ॥ सा० ॥ ११ ॥ हेय त्याग थी ग्रहण स्वधर्म नो रे, करे भोगवे साध्य ।
स्व स्वभाव रसीया ते अनुभवे रे, निज सुख अव्याबाध ॥ सा० ॥ १२॥ निस्पृह निर्भय निर्मम निर्मला रे, करता निज साम्राज । देवचंद्र आरणाये विचरता रे, नमिये ते मुनिराज ॥ सा० ॥ १३ ॥ सदा सुखी मुनिराज सज्झाय
जगत में सदा सुखी मुनिराज ।
पर विभाव परिणति के त्यागी, जागे श्रात्म समाज || जगत० ॥ निज गुरण अनुभव के उपयोगी, योगी ध्यान जहाज ॥ जगत० ॥ १ ॥ हिंसा मोस प्रदत्त निवारी, नहीं मैथुन के पास । द्रढ्य भाव परिग्रह के त्यागी, लीने तत्व विलास || जगत०|| २ || निर्भय निर्मल चित्र निराकुल, विलगे ध्यान अभ्यास । देहादिक ममता सवि वारी, विचरे सदा उदास | जगत० || ३ || ग्रहे आहार वृत्ति पात्रादिक, संयम साधन काज । देवचंद्र आरणानुयायो, निज सम्पति महाराज || जगत०||४||
१ - सरल व्यक्ति में सभी गुण रहते हैं । परकर्तॄता है, वस्तुतः नहीं है । विघ्नो को दूर कर देते हैं ।
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२- पूर्वाभ्यास के कारण ही जीव का ३- द्रव्य कारण कार्य सिद्धि में श्रानेवाले
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