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पंचम खण्ड
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चक्रवर्ति ते अधिक सुखी मनिवर सज्माय
पर गुण से न्यारे रहै, निज गुण के प्राधीन । चक्रवति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ।।१।। इह निज इह पर वस्तु की, जिने परीख्या कीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ॥२।। जिण हुँ निजनिज ज्ञान सूं ग्रहे परिख तत्व लीन । चक्रवति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ॥३॥ दस विध धरम धरइ सदा शुद्ध ज्ञान परी कीन । चक्रवति ते अधिक सुखी मुनीवर चारित लीन ॥४॥ समता सागर में सदा, झील रहे ज्यु मीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ।।५।। प्राशा न धरै काहू की, न कबहूं पराधीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ॥६।। तप संयम पावस वसै, देह प्रमाद दुख झीन । चक्रवति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ॥७॥ पुद्गल जीब की शक्ति सब जात सप्त भय हीन । चक्रवति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ।।८।। सप्तम गुणथानक रहै कीयो मोह मसकीन । चक्रवति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ॥६।। क्षयकोपशम पयड़ी चढे आतम रस सुधीन । चक्रवति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ॥१०॥
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