________________
११८ ]
श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष
ध्यानी निग्रंथ सज्झाय
॥ दोहा॥
परमारथ निश्चय करी, वधते मन वैराग । इंद्रिय सुख निष्पृह थका, साधु इसा वड़ भाग' ।। १ ।। भाव शुद्धि भव भ्रमण थी, छूटा जे जोगीश । काम भोग थी उभग्या, तननी स्पृहा न रीश ।। २ ।। प्राण त्याग पण ध्यान थी, छूटे नहीं लगार । पर त्यागी मुनिवर तिके, ध्यान तरणा आधार ।। ३ ।। महा-परिसह साप थी, जन निंदा थी जास। क्षोभ न पामे मन तनक, वसता निज गुरण वास ।। ४ ।। राग द्वष राक्षस थकी, भयनवि पामे जेह ।। नारी थी मन नवि चले, अक्षय निज रस गेह ।। ५ ।। तप दीपक नी ज्योति थी, बाल्या कर्म पतंग । ज्ञान राज्य त्रय लोक नो, विलसे जेह निः संग ।। ६ ।। तप थी तन ने पीड़वे, उपशम रस भंडार । लोक सर्व सुखकार जे, मोह अग्नि जलधार ।। ७ ।। निज स्वभाव अानंदमय, शांत सुधारस ठाम ।। योग' महागज जीप ने, व्रत धारी शम धाम ।। ८ ।।
१-भाग्यशाली २-जो काम भोग से दूर हो गये है। ३-जरा भी ४-मन-वचन और काया इन योग रूपी हाथी को जीतकर।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org