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श्रीमद् देवचन्द्र प. पीयूष
गिरि नगर कंदरा गेह शय्या शिला,
___ चंद्र कर दीप मृग संग चारी । ज्ञान जल तप अदीन शांत आत्मा थका,
धन्य निग्रंथ सुविहित बिहारी !।म०॥६॥ प्राण इंद्रिय वली देह संवर करी,
रोकी संकल्प मन मोह भंजी । धन्य निज ध्यान आनंद प्रालंब धरी,
शुद्ध पद प्रात्मनी ज्योति रंजी ॥०॥७।। हेय आदेय त्रिभुवन गण साधु जे,
क्षय करे पुण्य ने पाप केरो । प्रात्म आनंद स्याद्वाद थी विषय ने,
विष गणी भंजता कर्म घेरो म||८|| कार्य संसार ना साधता ज्ञानविण,
जगत में एहवा बहुत दीसे । कापी भव दुःख बली ज्ञान जल झीलता,
एवा साध दोय तीन दीसे ।।म०।।६।। बड़े प्रासाद में नरम पल्यंक पर,
रात जे पौढता नारी संगे । तेह गिरि कंदरा कठिन शिला परे,
रहे नित जागता ध्यान रंगे ।।म०।।१०।। चिन थिर राग ने द्वेष नो भय करी,
जीप इंद्रिय प्रारंभ छोड़ी ।
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