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चतुर्थ खण्ड
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जिन भाल वर्णन पद
राग-नायकी जिनजी तेरा भाल विशाला । सित' अष्टमी शशि सम सुप्रकाशा, शीतल ने अणियाला' ।।जि०॥१।। उत्तम जनको सिद्धशिला का, अनुभव हेतु उराला । समकित बीज अंकूर वृद्धि का, एह अमल पाल' वाला ॥जि०।।२।। साधक को संजम तरु रोपण, एहीज अनुभव थाला । वली रेखा नरपति सुरपति को, हित उपदेश प्रणाला ।।जि० ॥३॥ उर्ध्व तिलक रेखा युग सोहे, उपशम जलधि उछाला । देवचंद्र प्रभुभाल अनुपम, समता सरोवर पाला ॥जि०।४।।
जिन भ्र वर्णन पद
राग सारंग अति नीके भ्र जिनराज के (२) अंक रत्न द्युति सब हारो, श्याम सुकोमल नाजुके ॥अति०॥१॥ मोह मदन अरि विजय करन को, मानु कृपाण सुसाज के।।अति०।।२।। कर्म' कटक निवारन को धन, धनुष विवेक सुराज के प्रति०॥३॥ भ्रमर' पंक्ति मुख कज रस लीनी, अंकूरे गुण राज के प्रति०॥४॥ देवचंद्र भव जलधि तरेन को, सढ ए श्याम जहाज के ।।अति०॥५॥
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११-शुक्ल पक्ष की अष्टमी के चन्द्र के समान २-मन मोहक -क्यारी ४-प्रभु
आपकी भौएं कामरूपी शत्रु को जीतने के लिये, कृपाण तुल्य है ५-कर्म शत्रु को जीतने के लिये धनुष-तुल्य है। ६-मुख-कमल पर भंवर समुह है ७-गुण के अंकूरे हैं ८-भव समुद्र तिरने को जहाज है।
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