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जिन श्रवण वर्णन पद
राग- -केदारो
सुंदर श्रवरण' को ग्राकार, जिन ! तेरे
श्रवरण को आकार,
भवसमुद्र जल पार
उतारन, पोत के
ग्रनुहार || सुं०||१||
अनादि विभाव कांकर निकासन, पाकपात्र सम सार | ० ||२||
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[ १०६
महा मोहको जहर हरणकुं, गरुड़ पक्ष ग्रविकार | सुं०||३||
५
विशद बोध मुक्ताफल प्रगटन, अवधि मडुकी चार | सुं०||४||
देवचंद्र प्रभु श्रवरण स्तवन सें, परम सौख्य विस्तार | ० ||५|| वर्णन पद
जिन
मुख
राग - मल्हार
हु तो प्रभु ! वारी छ तुम मुखनी, हुं तो जिन बलिहारी तुम मुखनी । समता अमृतमय सुप्रसन्न नित, रेख नहि राग रुखनी । हुतो० ॥ १ ॥
कान २ - भव-समुद्र को पार करने में आपके कान, जहाज-समान है । ३ - अनादि. कालीन विभावरूपी कंकरों को दूर करने में पवित्र भाजन तुल्य है । ४ - मोह विष को हरण करने के लिये गरूड़ की पांखें समान है । ५- बोधरूपी उज्जवल मोतियों को प्रकट करने में सीपी तुल्य हैं ।
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