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श्रीमत् देवचन्द्र पर पीयूष
जे गर्भ प्राव्य सर्व इंद्रे शस्तव स्तवना करी।
गुण राग रमता शुद्ध समता भावना हीयै धरी ।।१।। तीरथपति जनम्या यदा, नारक पिण सूख पामै । दश दिश निर्मलता लहै, देव देवी शिर नामै जी ।।
तब चल्यै प्रासन दिशा कुमरी, हरखती भमरी' रमै । जिन जनम नगरी सनमुख थई वार वार श्री जिन नमै ।। गज दंत हेठलि आठ अमरी अधोलोक निवासनी।
गज दंत ऊपरि आठ कुमरी उर्द्ध लोक विलासनी ।।२।। पाठ ते पूर्व रुचकनी, दक्षरण पच्छिम तेती जी। आठ ए उत्तर रुचकथी, सुर भव लाहो लेती जी ।। लेती ज लाहो कूरण वासी च्यार च्यार सूरी मिली। वर देव देवी सहित भगते भरी आवी नै मिली ।। जिनराज गुण गण गावती मन भावती धरती रली ।
जिन जननि चरण सरोज नमती जनम घर प्रावी मिली ॥३॥ धन धन तु जग तारका, जग जननी हितकारी जी। त्रिभुवन तारक सुत जण्यो, तुम्ह सम कुरण उपगारी जी ।।
ताहरी सेवा इंद्र चाहे, इन्द्राणी ले उवारणा। तुज वदन दीठे दुक्ख नी है तुहिज हित सुख कारणा ॥ मोह नडीया' जगत जंतु ने तरण तारणभवि तणो ।:: आनंद कंद सुरिंद वंदित जिरणे जिनवर सुत जण्यो ॥४॥
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१-गरबा
२-चरण-कमल
३-मोह में फंसे हुए।
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