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बीमद् देवचन्द्र पछ पीयूष
प्रभु बात मुझ मननी सहू, जाणो अछी जगनाथ । थिर भाव जो तुमचो लहुँ, तो मिलें शिवपुर साथ ।।८।।जि०।। प्रभु मिल्यै हुँ थिरता लहूं, तुझ विरह चंचल भाव । इक वार जो तन्मय रमू, तो करू अकल स्वभाव ॥६॥जि०॥ प्रभु अछो क्षेत्र विदेह में, हं रहुं भरत मझार । तो पण प्रभुना गुण विर्षे, राखू स्व चेतना' सार ॥१०॥जि०॥ जो क्षेत्र भेद टले प्रभु, तो सरै सगलां काज । सनमुखे भाव अभेदता, करि वरू' प्रातम राज | ११|जि०॥ पर पूष्टि ईहा जेहनी, एवड़ो छई स्वाम । हाजर हजूरी ते मिल्य, नीपजे कितलो काम ॥१२॥जि०।। इन्द्र चंद्र नरिंद नौ, पद न मांगू तिल मात्र । मांगू प्रभु मुझ मन थकी, नवि विसरो खिरण मात्र ।।१३।।जि०॥ जां' पूर्ण सिद्ध स्वभावनी, नविकरि सकू निज ऋद्धि । तां' चरण सरण तुम्हारडां, एहीज मुझ नव निद्धि ।। १४॥जि०॥ माहरी पूर्व विराधना, योगे पडयो ए भेद । पिण वस्युं धरम विचारतां, तुझ नहीं छे भेद ॥१५॥जि०।।
१-यद्यपि मैं दूर हूं, फिर भी प्रभु के गुणों के प्रति मेरी सतत् दृष्टि है। २-जबतक ३-जबतक
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