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श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष
श्री शत्रुजय स्तवन (माज गई थी हुं समवशरण में-दाल) चालो सखी जिन वंदन जईइ, श्री विमलाचल' शृंगे रे । अनंत सिद्ध ध्याने सिद्धाचल, फरसीजें मन रंगे रे ॥०॥॥१॥ गुरु प्राचारी संगें सुविहीत, पोते पायविहारी रे । एकमहारी भूमि संथारी, सकल सचित परिहारी रे ॥चा०॥२॥ श्रावक श्राविका जिन गुण गाती, प्रभु भक्त अति राती रे । तीरथ फरसन मति ऊ जाती, गज गति चतुर सुहाती रे ॥चा०॥३॥ मुनिवर कोड़ी सिवगति पोहोती, निज' अनुभव रस लसती रे। विषय कषाय दोष उपसमती, रत्नत्रयी मां रमती रे ॥चा०॥४॥ ऋषभादिक जिन फरसित थानक* ; फरस्यां पाप पुलाई रे । शुद्ध गुणी समरण गुण प्रगटें, ध्यान लहेर लीलाई रे ॥चा०॥५॥ प्रतीत अनागति में वर्तमानें, एतीरथ सहक टीको रे । श्री शत्रुजय भक्तई पामें, देवचंद पद नीको रे ॥चा०॥६॥
इति श्री शत्रुजय स्तवनम्
पाठान्तर-x जिहांमुनि + लहती * अंगे क्क सिर कीको १-विमलाचला के शिखर पर २-प्रात्मानुभव में रमण करते हुए ३-विषय-कषाय जन्य दोषों को शान्त करते हुए ४-उत्तर
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