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प्रथम खण्ड
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प्रभु ध्यान रंग अभेद थी, करि अात्म भाव अभेद । छेदी विभाव अनादि नो, अनुभवू स्वसंवेद्य ॥१६॥जि०।। वीनवू' अनुभव मीत ने, तूं न करि पर रस चाह । शुद्धात्म रस रंगी थयी, करि पूर्ण शक्ति प्रबाह ।।१७।।जि०॥ जिनराज' सीमंधर प्रभु, तें लह्यो कारण शुद्ध । हिव आत्म सिद्धि निपायवा, सी ढील करीये बुद्ध ॥१८॥जि०॥ कारणे कारज सिद्ध नो, करवो घटे न विलंब । साधवी पूर्णानंदता, निज कर्तृता अवलंबि ॥१९॥जि०॥ निज शक्ति प्रभु गुण मैं रमै, ते कर पूर्णानंद । गुण गुणी भाव अभेद थी, पीजिये सम मकरंद ॥२०॥जि०॥
प्रभु सिद्ध बुद्ध महोदयो, ध्याने थई लयलीन । निज देवचंद्र पद आदरै, नित्यात्म रस सुख पीन ॥२१॥जि०॥
इति जिनस्तुति श्री सीमंधर स्वामिनी देवचंदेन कृतं ॥
में अपने अनुभवरुपी मित्र को विनती करता हूँ कि तूं पर विषय की इच्छा न है। २-सीमंधर भगवान, आत्म सिद्धि का अद्भुत कारण है। ३-कारण पर कार्य सिद्धि करने में कोई विलम्ब नहीं करना चाहिये । अपनी कर्तृत्य का अवलंबन कर पूर्णनन्द स्वरूप को सिद्ध करना चाहिये।
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