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धीमत् देवचन्द्र पर पीयूष
श्री सहस्त्रकूट जिन स्तवनम् सहस्रकूट' जिन प्रतिमा वंदिय, मन धरि अधिक जगीस विवेकी। सुंदर मूरति अतिः सोहामणी, एक सहस चौवीस वि० ॥१॥स०।। अतीत अनागत नै वर्तमानजी, तीन चौबीसी हो सार वि० । बिहुत्तर जिनवर एके क्षेत्र में प्रणमीजे वारं वार वि० ॥२॥स०।। पांच भरत वलि ऐस्वन, पांच में सरथ्वी रीति समाज वि० । दस खेत्रे करि थाये, सात से वीस अधिक जिनराज वि० ।।३।।स०।। पंच विदेहे जिनवर साढिसो, उत्कृष्टी एहिज टेव वि० । जिन समान जिन प्रतिमा, प्रोलखी भगत कीजे हो सेव वि० ॥४॥स०।। पंच कल्याणक जिन चौवीसना, वीसासो तेहज थाय वि० । ते कल्याणक विधि सु साचव्यां, लाभअनंतो थाय वि० ॥शास०।। पंच विदेहे हिवणां विहरता, वीस अछ अरिहंत । सास्वत प्रभु रिषभानन आदि दे, च्यार अनादि अनंत वि० ॥६॥स०।। एक सहस चोवीस जिणेसनी, प्रतिमा एकण ठामि वि० ।। पूजा करतां जनम सफल होवै, सीझै वंछित काम वि० ॥७॥स०।।
१-एक हजार प्रतिमाओं का शिखर।
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