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श्रीमद् देवचन्द्र पर पीयू
निज भावे सी अस्तिता रे, पर नास्ति अस्वभाव । अस्ति पणे ते नास्तिता रे, सिय ते उभय सभावो रे प्र०७ अस्ति सभाव ते आपणो रे, रुचि वैराग्य समेत । प्रभु सनमुख वंदन करी रे, मांगिस आतम हेतो रे प्र०८ करुणा निधि मुझ तारीये रे, दाखी शुद्ध स्वभाव । मुझ पातम सुख स्वादनो रे, बीजो कोण उपावो रे प्र०६
काल अनादि नो वीसरयो रे . माहरो आत्मानंद । प्रभु विरण कुरण मुझ सीखवं रे, त्रिभुवन करुणा कंदो रे प्र०१०
मुझ में तुझ. शासन तणी रे, छे मोटी ऊमेद । निरमल पात्म संपदा रे, थास्ये प्रगट अभेदो रे प्र० १.१
दीपचंद्र गुरु सेवतां रे, पाम्यो देव अभंग । देवचंद्र ने नित होज्यो रे, जिन शासन दृढ रंगों रे प्र०१२ ....
इति श्री पद्मनाभ स्तवन प्रति नं० २१०८ पत्र १ नित्य वि० म० जीवन जैन लायब्ररी, कलकत्ता । इस स्तवन की गां० ४ से ८ तक चौबीसी के कुन्थुनाथ स्तवन के गा० ५ से १ वाली ही हैं तीसरी गाथा में कुन्थुनाथ के स्थान मैं इसमें पद्मनाभ है।
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