________________
प्रथम खण्ड
श्री शीतल जिन वंदता, दोय ध्यान न राखइ लो । ग्रहो दो० । धर्म ध्यान मन भावीयइ, देबचंद इम भाख इ लो । ग्रहो दे० ।।१५।।
___ढाल--पास जिणंद जुहारीयइ, एहनी ध्यान च्यार मइ वर्णव्या, श्री प्रागम नइ अनुसारइ रे । आर्त रोद्र नइ परिहरी, भविक धरम चित्त धारइ रे ॥१॥ श्री शीतल जिन वंदना, हं करून सदा वार वारइ रे । भवियण प्राणी जेहुवइ, ते तीजउ ध्यान संभारइ रे ॥२॥ श्री०॥ शुक्ल ध्यान हिवणां नहीं, इण पंचम दूषम आरइ रे । धरम शुकल दोइ ध्यान सु, तिण प्रीति घणी मन माहरइ रे ॥३।। श्री०॥ युगप्रधान जिरणचंद ना, शिष्य पाठक गुणे सवाया रे। पुण्य प्रधान शिष्य गुण निला, श्री सुमति सागर उवझाया रे ॥४॥श्री०।। साधुरंग वाचक वरू, तसुसीस पण्डित विख्याता रे । राजसार पाठक अछइ, जे जिनमत सु अति राता रे ।।५।।श्री०।। ज्ञान धर्म शिष्य तेहना, वाचक पद ना धारी रे । तासु शीश राज हंस नउ, मुनि राज विमल सुविचारी रे ।।६।।श्री०॥ तिण ए ध्यान' तणउ रच्यउ, तवन शीतल जिन केरउ रे । भरणतां गुणतां संपदा, दिन दिन उच्छव अधिकेरउ रे ॥७॥श्री०।। इति श्री ध्यान चतुष्क स्तवन । पं० देवचंद्रकृतम् ।।
लिखितं पं० दुर्गदास मुनिना पत्रांक २ नहीं है (पत्र ४ पं. ११ अ. ३६-४० आचार्य गच्छ भंडार
१-चार ध्यान के वर्णन से युक्त स्तवन की रचना की।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org