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प्रथम खण्ड
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भद्रक भाव रागी पधौ, वीनति एम कराय रे । देवचंद्रह पद नीपजे, नाथजी भगति सुपसाय रे ॥१३॥भ०॥
(१२) ढाल-धन्यासरी गावो गावो रे जिनराज तणा गुण गावो । सम्यग् दर्शन ज्ञान चरण नी, निर्मल थिरता पावो रेजि०॥१॥ पंच कल्याणक स्तवना स्तवता, प्रातम तत्त्व निपावो । . मोह महा रिपु दोष अनादी, खिरण में तेह गमावो रे ॥जि०॥२॥ आतम तत्त्व ध्यान एकता, साचो शिव सुख दावो। ईश्वर भक्ति तेहनो कारण, आगम माँहि कहाव्यो रे ॥जि०॥३॥ प्रभु गुण ध्यान स्व जाती रमणे, निरमल परणति थावो। तेहथी सिद्धि तिणें प्रभु सेवन, आतम शक्ति वधावो रे ॥जि०॥४॥ सुविहित खरतर गच्छ परंपरा, राजसार उवझायो । तास सीस पाठक सम दम धर, ज्ञान धरम सुख दायो रेजि०॥५॥ दीपचंद पाठक उपगारी, सासन राग सवायो । तास सीस सुचि भगति प्रसंगें, देवचंद जिन गायो रे ॥जि०॥६॥ भावनगर श्री ऋषभ प्रसाद, दीवाली दिन ध्यायो। संघ सकल श्रु त सासन रागी, परम प्रमोद उपायो रे ॥जि०॥७॥ शासन नायक वीर जिनेसर, गुण गातां जयमालो । देवचंद प्रभु सेवन करतां, मंगल माल विशालो रे ॥जि०॥८॥ इति श्री वीर निर्वाण पं० श्री देवचंद गणी विरचितायां
समाप्त: 'ग्रंथानं २१८॥ गाथा १४३
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