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"प्रथम खण्ड
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पुस्तकारूढ कर्या जिन आगम, राख्यो शासन शुद्ध रे। टीकाकार शैलांगसूरिवर, श्री अभयदेव प्रबुद्ध रे ॥६।।ध.।। श्री हरिभद्र मलयगिरि पंडित, हेमसूरि मलहार रे । नंद महत्तर सूरि जिनेश्वर, जिनवल्लभ सुखकार रे ॥७॥ध ।। श्री देवेन्द्र हेम आचारिज, कुमार पाल जसु भक्त रे । श्री खेमेंद्र प्रमुख श्रुत रसीया, दूसम काले व्यक्त रे ॥८॥ध ।। दुपसह सूरि छेहला गणिधर, पाराधक जिन पारण रे । चौविह संघ शुद्ध श्रद्धाधर,' पंचांगी परमाण रे ॥६॥ध।। द्रव्य छक नव तत्त्व नी श्रद्धा, ज्ञान क्रिया शिव सार रे । उत्सर्ग ने अपवाद साधना, निश्चय नय विवहार रे ।।१०॥ध.।। निमित्त वली उपादान कारण युग साधन तीन प्रकार रे । प्रवृति १ विकल्प २ तथा परगति शुचि करतां भव निस्तार रे ।। ११॥धः।। पुष्ट निमित्त सेवन थी पातम, परणति थाय शुद्ध रे । तत्त्वालंबी तत्व प्रगटता, साधै पूर्ण समृद्ध रे ॥१२॥ध.। देवचंद्र श्री वीर चरण युग, सेवो भक्ति अखण्ड रे । शासन संगी. पारगारंगी, ते थाये गत दंड रे ॥१३॥ध.।।
(११) ढाल-कुमत इम सकल दूरे करी--ए देशी भगति इम चित्त साची धरी, धारीये सासन रीति रे। वारीये दुष्ट दुरवासना, चूरीये' भव तणी भीति रे ॥१॥भि०॥
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१-श्रुतीर-ध्वंसिय विधि (अच-लोह)
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