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॥ ५॥ भ० ॥
वीर जिनराज सम प्रभु लही, गह गही बुद्धि गुण ग्राम रे । कोरण पर देव नें आदरें, कल्पतरू सम प्रभु पामि रे ॥ २ ॥ भ० ॥ एक आधार छें ताहरों, माहरे दीन दयाल रे । सार कीजें हिवें दासनी, नाथ जगजीव प्रति पाल रे || ३ ॥ भ० ॥ वीनति दास नी धारियें, तारियै कर उपगार रे । दोष अनादि निवारियें, प्रापीयें अनुभव सार रे ॥ ४ ॥ भ० ॥ मोह जंजाल वसि जीवड़ा, रड़वड़े पुग्दल राग रे । तेहनें शुद्ध रत्नत्रयी, दाखवी तें महाभाग रे एक प्रालंबन स्वामि नो, दास ना चित्त ने नाह रे । असरण शरण भव अडवितो, तू हिज परम सत्यवाह रे | ६ || भ० il तुझ गुरण राग भर हृदय में, किम वस दुष्ट कषाय रे । निर्मल तत्त्व ना ध्यान थी, ध्यायक निर्मल ज्ञान थाय रे || ७॥ भ० ॥ ध्येयनी शुद्धता रस थकी विद्ध प्रय कंचन धाय रे । निम अमोही रसी चेतना, पूर्णानन्द उपाय रे ||८||भ० ॥ माहरा परणति दोष नी, तीव्रता वाररण कार रे । ताहरा शासन श्रुत तरगो, राग छे एक आधार रे ॥ भ० ॥ खिर खिरण नाम तुम चो जपु, तुझ गुरण स्तवन उल्लास रे । चींतवी रूप प्रभुजी तरणो कीजियें ग्रात्म प्रकाश रे ॥ १० ॥ भ० ॥
वलि वलि वीनवु स्वामि जी, शुद्ध प्रासय पर मुझ हज्यो, वीर मरणा प्रविहड़ पर, ताहरी साख थी सत्य ने,
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श्रीमद् देवचन्द्र पर पीयूष
नित प्रति तु हिज देव रे । भव भव ताहरी सेव रे ॥ ११ ॥ भ० ॥ प्रादरू साधन जेह रे । सीझस्यै माहरै तेह रे ॥ १२ ॥ भ० ॥
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