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श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष
श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ स्तवन
जगवल्लभ जिनराज जो, अरज एक अवधारो जी । कृपा करी भवजलधि थी, मुझ ने पार उतारो जी ॥जग०॥१॥
जगतारक जगनाथ तु, बिन स्वारथ जगभ्राता जी। . सारथवाह निर्याम को, जग वच्छल जग त्राता जी ॥जग०॥२॥
एहवा जाणी पाश्रयो, निज शिव सुख हेते जी। गुण अनंतता स्वामि नी, ऊरण' न थावे देते जी ॥जग०॥३॥
प्रभु भाखे संवर पणे, शुद्धातम भावो जी। स्याद्वाद एकत्त्वता, तो मुझ सरिखा थावोजी ॥जग०॥४॥
वल्लभता तेथी अछे, जिन प्रवचन उपगारे जी। पण आदरतां दोहिलो, छते मोह परिवारे जी ॥जग॥५॥
तेणे प्रभु तेहवु करो, नाशे मोह अज्ञानो जी। मोटा नी सुनिजर' थकी, थाये सहु आसानो जी ॥जग०॥६॥
१-कमी नहीं होती
२-बड़ों की कृपा से
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