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प्रथम खण्ड
सर्व शक्ति निज कार्य में जी, करती वर नि प्रयास । सादि अनंत करू जो, ग्रातम शक्ति विलास ||जि०||
तीस वरस गृह वास में जी, बार वरस मुनि भाव 1. तेर पक्ष अधिक तप्या जी, तप शिव साधन दाव || जि०||१०|| विचरय । परमेश्वर पदेजी, तीस वरस किंचरण । भाव यथारथ उपदिश्याजी, नयनिक्षपे पूर्ण जि॥११॥ पर परसंग सहू तजी जी, अनहारी ग्रशरीर 1 चल अक्षय मूर्त्तता जी, व्यक्ति शक्ति धर धीर ॥ जि०||१२|| वीर प्रभु निज पद लह ु जो परमानंद प्रबाध । अवनाशी संपूर्णताजी, पररणति भाव अगाध ॥ ज० ॥ १३ ॥ (७) ढाल -- प्रभु तू स्वयंबुद्ध सिद्धो अलुद्धो, ए देशी प्रभु तु ग्रनतो महंतो प्रसंतो, त् प्रभु कर्म भासन कृतंतो पूर्ण आनंद प्रास्वाद वंतो, प्रभु तूं थयो सिद्धि लच्छी सुक्रतो || १ ॥ प्र० । गंधे फासे रूबी, प्रभु तू थयो अरस संठागा हीनो ।
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मोही कर्त्ता भोगी प्रयोगी, प्रवेदी प्रखेदी' गुग्णानंद पीनो ॥२॥ ॥ प्रभु जाणतो ज्ञान थी तू सर्व छतीं वस्तुनी देखतो सर्व सामान्य भावो आत्मगुण रमण अनुभव रमे घूमतो, तें लह्यो पूर्ण शुद्धात्म भावो ॥ ३॥ ॥ श्रात्म गुग्गा दान लाभे बनते, वर्यो भोग उपभोग निज धर्म लीना । सकल गुरण कार्य सहकार वीर्येवर्या, चपल वीरज गयै थिर प्रदीनो ॥०॥४॥
-प्रछेटी
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