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प्रथम खण्ड
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कृपा सिन्धु जिनजी कह्यो, छए द्रव्य निज भावे जी। निज यथार्थता सद्दहो, अनेकान्तता दावे जी ।।जग०॥७॥
ग्रहगा' ग्रहगा परीक्षणी, कारण कारज जोगे जी । भेदा भेद अनंतता, जारणो निज उपयोगे जी ॥जग०।८।।
स्व स्वरूप निज प्राचरो. निमित्त अने उपादाने जी। योग अवंचकता करी, निर्मल वधते ध्याने जी ।।जग०॥६॥
एह्वा गुण जेहना अछे, सकल शुद्धता भासे जी। तर्या तरे छे जेहथी, तरशे तास अभ्यासे जी ॥जग०।१०।।
प्रभुजी ने अग्रेसरी, अागम अगम प्रभावी जी। जिनजी परम कृपा करी, तेहथी भेंट करावी जी ॥जग०॥११॥
परम प्रमोद थयो हवे, जे मिल्यो श्रुत सद्भावे जी । स्याद्वाद अनुभव करी, साधो सिद्ध स्वभावे जी ॥जग०॥१२॥
तेवीसमो जिनराज जी, सुप्रसादे पाराधे जी । देवचंद्र पद ते लहे, परम हर्ष तमु वाधे जी । जग०॥१३॥
ग्राह्य-अग्राह्य की परीक्षा करने वाली
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