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प्रथम खण्ड
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जीव उदय . शुभ कर्म रइ, पामइ छइ सुख अपार रे । अशुभ उदय दुक्ख ऊपजइ, एह निश्चै करी धार रे ॥६॥ए।। नरक भई दुक्ख जे तई' सहया, तेह आगइ किसू एह रे । पाय तीजइ इसउ चीतवइ, इम करइ भव' तणउ छेह रे ॥७॥ए.।। शब्द आकार रस फरस सब, गंध संस्थान संघयण रे । रुप ध्यावइ वली आपणउ, तजीय मोहादि वलि मयण' रे ॥ाए.॥ जीव जग तीन मइ छइ किना, जीव मइ तीन जगसार रे । जीव वडउ जगत्रय वडउ जीव जग तीन सिणगार रेहए.॥ ए सरूप जगत्रय तणउ, चीतवइ चित्त मई नित्य रे । तेथि संस्थान विचय भवउ, पाय चउथउ धूम कित्त रे ॥१०॥ए.।। दूहा-धरम ध्यान ध्याया पछी, सुख शिव पद दातार। .
शुक्ल ध्यान ध्यावे भविक, प्रातम रूप उदार ॥१॥ च्यार पाय तिण शुक्ल ना, पृथक्त वितर्क विचार । बीजउ शुक्ल सुहामणउ, एक तर्क अविचार ॥२॥ तीजउ शुक्ल श्रुतइ कह्यउ, सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति । चउथउ शुक्ल ध्यावइ सदा, छिन्न क्रिया प्रतिपाति ॥३॥
ढाल-मालीय केरे वाग मइ एहनी एक द्रव्य परयाय सु, शुकलइ मन लावउ लो । अहो शु० । उतपति थिति इम अंग सु, तिण मांहि मिलावइ लो । अहो ति० ॥२॥
१-जूने २-भवरूपी तृष्णा का छेद करना ३-काम-विकार
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