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श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयू
क्रोध मोह मद लुद्ध, मन मई दुष्ट धरइ री । रोग चित्त इण नाम, तीजउ आर्त कहइ री १५।। राज रिद्धि सुख पूर, काम भोग नित चाहइ । धन संतान निमित्त, देह कष्ट बहु साहइ' ॥१६॥ वासुदेव चक्रवर्ति सुर किन्नर पद काजइ । इह लोक नइ परलोक, सूख वांछा मन छाजइ ॥१७॥ करइ तपस्या नित्त, मन मइं जे पद चाहइ ।। भण्यउ नियायो नाम, प्रात अत्य अवगाहइ ।।१८।।
इति आर्तध्यान दूहा-सदा त्रिशूलउ' शिर रहै, अांखे क्रोध अपार ।
बोलइ इम कडा वचन, मुखइ मकार चकार ।।१।। दुष्ट परिणामी खल सदा, विनयहीन वाचा (ल)।
...............॥२॥ ...................................-.---.-... ----.... . . . . . . . नवि करइ, प्रथम पायो तिण जाण रे ॥३॥ए.।। एह मुझ जीव अनादि नो, कर्म जंजीर संयुक्त रे। पाडुग्रा' कर्म व लंक थी, कोज स्यर किरण दिन मुक्त रे ॥४॥ए.॥
आत्म गुण परगट कदि हुस्यै, छोडि पर पुदगल संग रे। एह विचार अहनिशि कर, एह वीजौ धूम अंग रे ॥५॥ए.॥
१-सन्तानादिक के लिये बहुत से कष्ट उठाना २-हमेंशा नाक भों चढ़ी रहना. ३-दुर
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