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[ छिहत्तर
कर हम अपने आत्म विकास का मार्ग प्रशस्त करना है तथा तदनुरुप जीवन बनाने के लिये प्रयत्नशील होना है।
श्रीमद् की भक्ति पर इस मान्यता का गहरा प्रभाव है। वीतरागता के प्रादर्श को अक्षुण्ण रखते हुए उन्होंने भक्ति की है। श्रीमद् ने अपने स्तवनों में इस तत्त्व को पुनः पुनः जिस प्रकार स्पष्ट शब्दों में दुहराया है, वैसा अन्य किसी ने प्रकाशित किया हो, नजर नहीं आता। यही उनको भक्ति की महान विशेषता व मौलि. कता है। जैसा कि उन्होंने गाया है।
प्रभुजी ने अवलंबता, निज प्रभुना हो प्रगटे गुणरास । देवचन्द्र नी सेवना, आपे मुज हो अविचल सुखवास ॥
' प्रभु पालंबन रूप है। उनके निमित्त से अपनी प्रभुता प्रकट होती है। इस गाथा में यही भाव स्पष्ट किया है। . प्रभु के निमित्त से अपने स्वरूप को स्मृति होती है तथा उसे पाने की प्रेरणा मिलती है। इस तत्व को श्रीमद् ने कितनी स्पष्टतापूर्वक व्यक्त किया है। जैसे
प्रभु प्रभुता संभारता, गातां करतां गुणग्राम । सेवक साधनता वरे, निज संवर परिणति पाम रे ।।
प्रभु दीठे मुज सांभरे, परमातम पूर्णानन्द । श्रीमद् की भक्ति के आधारभूत मुख्य तीन तत्व है- १. प्रभु की प्रभुता २. अपनी लघुता ३. परमात्मा के प्रति अनन्य समर्पण भाव। उनके स्तवनों में ये भाव पदे पदे मुखरित हुए हैं । श्रीमद् के हृदय में प्रभु को प्रभुता के प्रति अनन्य श्रद्धा है। प्रभु को प्रभुता अनंत हैं। उस अनंत प्रभुता को बताने में भी वे असमर्थ है।
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