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[ बयासी ]
"समता सागर में सदा, झील रहे ज्यु मीन । चक्रवर्ती ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ॥ निस्पृह, निर्भय, निर्मम, निर्मला रे, करता निज साम्राज्य । 'देवचन्द्र' श्रारणाये विचरतां रे, नमिये ते मुनिराज ॥
जहां शान्त-निर्मलवृत्ति, परभाव त्यामवृत्ति एवं स्वानुभव रमणता है, वहाँ आनन्द का अक्षय स्रोत है। कहा है- "परस्पृहा महादुखम्, निः स्पृह्त्त्वम् महासुखम् ।" श्रीमद् का जीवन प्रवधूत योगी का जीवन था । श्राप घण्टों तक ध्यानमग्न एवं शुद्धोपयोग में लीन रहते थे । फलतः आपने जो निजानंदमस्ती 'अलखदशा' एवं 'आत्मसमाधि' का अनुभव किया वह प्रति श्रद्भुत है। उनकी 'निजानंद मस्ती 'अलखदशा' एवं आत्मसमाधि' की झलक देखिये :
"प्रभु दरिसरण महामेहतणे प्रवेश में रे I परमानंद सुभिक्ष थयो, मुज देश में रे ॥
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तीन भुवन नायक शुद्धात्तम, तत्त्वामृतरस वृठुरे ॥ सकल भविक वसुधानी लाणी, मारू मन परण तूठुरे ॥ मनमोहन जिनवरजी मुजने, अनुभव प्यालो दीघोरे ॥ पूरनिन्द अक्षय अविचल रस, भक्ति पवित्र घई पीधीरे ॥ 'ज्ञानसुधा' लालीनी ल्हेरे, अनादि विभाव विसार्यो रे ।। सम्यगज्ञान सहज अनुभव रस, शुचि निजबोध समार्यो रे ।।
श्रीमद् जैनशासन के मर्मज्ञ विद्वान एवं पापभीरु महात्मा थे। उनका जोवन पूर्णरुपेण जिमाज्ञा समर्पित था । आपके विचारों में अनेकान्त प्रतिष्टित था । आपके जीवन में निश्चय और व्यवहार, ज्ञान और क्रिया का विवेकपूर्ण सन्तुलन था । क्यों
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