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[छियासी] श्रीमद् के समय की अपेक्षा आज की स्थिति भी कोई अधिक सन्तोष जनक नहीं है । अतः श्रीमद् का ज्ञान क्रिया से सुवासित व्यक्तित्व और कृतित्त्व आज भी वही महत्व रखता है।
-उपसंहारश्रीमद् १८ वीं शताब्दी को उज्ज्वल करनेवाले युग प्रवर्तक, महान् आध्यात्मिक नेता थे। विद्वत्ता के साथ साधुता के सुमेल के कारण आपका व्यक्तित्व निर्दोष, निष्कलक एवं सर्वातिशाही था। यद्यपि श्रीमद् प्राचार्य न बने, ऐसे त्यागी, निस्पृही महात्मानों के लिए पदवी भी उपाधि ही है-तथापि अपने अनन्य दुर्लभ अनेक सद्गुणों के कारगा सभी गच्छ में उनके प्रति जो आदर, भक्ति, श्रद्धा और बहुमान था और आज भी है वह किसी भाग्यशाली को ही मिलता है। उन्होंने ज्ञानयोगी और कर्मयोगी का समन्वित जीवन जीकर स्वार्थ और परार्थ की जो साधना की, धर्म और समाज की जो मेवा की वह अपूर्व है। आज उनकी अविद्यमानता में भी उनके अनमोल ग्रन्थ मोक्षार्थियों के लिये मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं और भविष्य मे करते रहेंगे। इस दृष्टि से यह कहना कोई अत्युक्ति नहीं हैं कि वे प्राचार्यों के भी प्राचार्य थे उस युग के प्रधान पुरुष व महान् आगमधर थे।
उनके हृदय में प्रभु के प्रति सच्चा समर्पण, विचारों में अनेकान्त, वाणी में विवेक एवं आचरण में कठोर संयम साधना थी । यही कारण है कि तत्कालीन साधु-समाज एवं संघ में आपका अद्वितीय प्रभाव था।
धर्म सागर जी को गलत प्ररुपणानों के कारण १७ वीं शताब्दी में जैन संघ को एकता छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। ऐसे कदाग्रह के बाद पू. जिनविजय जी पृ. उत्तमविजयजी एव पू. विवेकविजयजी जमे तपागच्छ के स्तंभभूत मुनियों का गुरुभक्त शिष्यों की तरह आप से शास्त्राध्ययन करना, इतना ही नहीं इस प्रसंग
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