________________
श्री वज्रधर जिन स्तवन
( नदी यमुना के तीर । ऐ देशी) विहरमान भगवान सुणो मुझ वीनति । जगतारक जगनाथ, अछो त्रिभुवन पति ।। भासक लोका लोक, तिणे जाणो छती । तो पण वीतक वात, कहूं छू तुझ प्रति ॥१॥ हूं सरूप निज छोडि, रम्यो पर पुद्गले । झील्यो उल्लट प्राणी, विषय तृष्णाजले ॥ पाश्रव बंध विभाव, करुं रुचि आपणी । भूल्यो मिथ्यावास, दोष द्यु परभणी ॥२॥ अवगुण ढांकण काज. करू जिनमत क्रिया । न तजु अवगुण चाल, अनादिनी जे प्रिया ॥ दृष्टिरागनो पोष, तेह समकित गणु । स्याद्वादनी रीति, न देखु निजपणु ॥३॥ मन तनु चपल स्वभाव, वचन एकान्तता । वस्तु अनन्त स्वभाव, न भासे जे छता ॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org