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मखण्ड
श्री ऋषभ जिन स्तवन
राग-प्रभाती
आज आणंद वधामरणा, आज हर्ष सवाइ । ऋषभ जिनेश्वर वंदीये, अनुपम सुखदाइ ॥आज.।।१॥
सारथवाह भवे लही, शुचि' रुचि हितकारी । आनंद वैद्य भवे करी, मुनि सेवा सारी ।।प्राज.।।२।। चक्री भव संजम लही, थानक' (वीस) पाराधी। सर्वार्थ सिद्धथी चवी, जिन' पदवी लाधी ।।आज.।।३।।
काल' असंख्य जिन धर्म नो, प्रभु विरह मिटायो । गणधर मुनि संघ थापना, करी सुख प्रगटायो ।प्राज।।४।।
मरु देवा सुत देखतां, अनुभव रस पायो । देवचंद्र जिन सेवना, करि सुजस उपायो ।आज.।।५।।
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सम्यग्दर्शन-समकित २-वीसस्थानक तप ३-तीर्थकर पद ४-ऋषभदेव भगवान ने १८ कोड़ा कोड़ी सागर तक लुप्त हुए धर्म का पुनः प्रवर्तन किया, इस तरह भव्य जीवों के लिये इतने दिन का जो धर्म का वियोग था, उस वियोग को मिटाया।
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