________________
प्रथम खण्ड
[
.
प्रभु' मुख चन्द्र संयोग थी जी, महानन्द रस जोर । नवि प्रगट्यो तिण वन्न थी जी, मुझ मन अतिहि कठोर ॥८॥ज।। भव भमिवै दुर्लभ लही जी, रत्नत्रयी तुम साथ । ते हारी निज़ पालसै जी, किहां पुकारू नाथ ॥६॥ज।। मोह विजय वैराग्य जे जी, ते पर रंजन काम । निज पर तारन देशना जी, ते जन रंजन ठाम ।।१०।।ज।। विद्या तत्व परिखवा जी, ते पर जीपण ढाल । परम दयाल किती कहूँ जी, मुझ हासा नी चाल ॥११॥ज।। पर निंदा मुख दुखव्यो जी, पर दुख चित्यो रे मन्न । पर स्त्री जोगे आँखड़ी जी, किम थांस्युहूँ धन्न ।।१२।।ज।। काम वसै विषपि पण जी, भोग विडंबन वात ।
ते स्यु कहीइ लाजताजी, जाणो छो जग तात ।।१३।।ज॥ परमातम पद नीपजे जी, श्री नवकार प्रभाव । तेहा कुमंत्रि ध्वंसियोजी, इंद्री सुख नै दाव ।।१४।।ज.।। श्री जिन आगम दूखव्यो जी, करी कुशास्त्र नो रंग । अनाचार अति प्राचरया जी, भूलि कुदेवं नै संग ।।१५।।ज.।। दृष्टि प्राप्य प्रभु मुख तजी जी, ध्यावु नारी रूप । गहन-विर्ष-विष-धूम थी जी, न रहुं आत्म स्वरूप ॥१६॥ज.।।
१-प्रभु के मुखरूपी चन्द्र के दर्शनकरते हुए भी मेरे हृदय में आनन्द रुपी रस प्रकट नहीं हुअा, मेरा हृदय वच की तरह कठोर है। २-सांसारिक सुखों के लिये मैंने नवकार मन्त्र का दुरुपयोग किया।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org