________________
प्रथम खण्ड
११ ]
न करयो धर्म गयै भवै जी, करवउं पिरण अति कष्ट । वर्तमान भव रंगता जी, तिण तीने भव नष्ट ।।२७॥जग ।। प्रभु पागल स्यु दाखवउजी, मुझ पाश्रव पर चार । तीन काल जाणग अछोजी, तरीये तुझ आधार ॥२८॥जग.।। भद्रक र मुनि बुद्धइ नमै जी, तेमां हरखुरे आप । मुनि पद हँस करू नहीं जी, ए सबलो संताप ॥२६॥जग.॥ जिन मत वितया' प्ररूपणाजो, करतां न गणी रे भांति । जस इद्री सुख लालचे जी, कोधू काल व्यतीत ॥३०॥जग.॥ तत्व अतत्व गवेषणा जी, करवी पिण अति दूर । तत्व प्ररूपक मान थी जी, विस्तारू भव भूरि ॥३१॥ जग.।। तुम सम दीन दयालुप्रो जी, नवि बीजो जिन राज । दया ठाम मुझ सारिखो जी, छे बीजो कुग आज ।।३२।।जग.।। श्री सिद्धाचल मंडणो जी, ऋषभदेव जिन राज । रत्नाकर सूरें स्तव्यो जी, निर्मल समकित काज ॥३३॥जग.।।
कलश निज नाण सण चरण वीरज परम सुख रयणो यरौ। जिनचंद्र नाभि नरेंद नंदन त्रिजग जीवन भायरो । उवझाय वर श्री दीपचंदह सीस गणि देवचंद ए। संथव्यो भगतें भविक जन ने करो मंगल वृ'द ए॥३४॥
इति स्तवनं संपूर्णम् .. ... 1- क्या बताऊ ? २- भोले व्यक्ति मुनि बुद्धि से मुझे नमस्कार करते हैं। ३- उत्सूत्र-प्ररूपणा ४- तत्त्व क्या है ? अतत्त्व क्या है ? इसका कोई
विवेक नहीं है, फिर भी अपने आपको तत्त्व-प्ररूपक मानता हुप्रा. संसार वृद्धि करता हूं ५. रत्नाकर-समुद्र ६-भ्राता ७- स्तुति की
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org