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[ चौरासी ] संवेगी मुनि भगवन्त बहुत अल्प संख्या में थे। ज्ञान बिना सम्यक् क्रिया का प्रवर्तन नहीं हो सकता, यही कारण था कि जैन समाज क्रियाजड़ता में आबद्ध हो गया था । क्रिया के क्षेत्र में भेड़ चाल थी। उपदेशक भी ऐसे ही थे । ज्ञानशून्य क्रिया के पालन में ही गुरू और भक्तसच्चे धर्मात्मा, संयमी और समकितधारी होने का संतोष मनालेते थे। ज्ञानियों का आदर भाव कम था। श्रीमद् को संघ की इस दशापर बड़ा दुख था। इस अन्तपीड़ा को उन्होंने प्रभु के सम्मुख मार्मिक शब्दों में प्रकट को है।
'द्रव्य क्रिया रूचि जीवड़ा रे, भाव धर्म रूचि हीन । उपदेशक पण तेहवा रे, शु करे जीव नवीन रे ।।
चन्द्रानन जिन. तत्त्वागम जाणग तजी रे, बहु जन सम्मत जेह । मूढ़ हठी जन आदर्यों रे, सुगुरू कहावे तेह रे ॥ चन्द्रानन जिन आणा साध्य विना क्रिया रे, लोके माग्यो रे धर्म। .
दसणनाण चरित्तनो रे, मूल न जाण्यो मर्म ३ ॥ चन्द्रानन जिन .... जब तक सम्यकज्ञान की भूमिका पर क्रिया की प्रतिष्ठा नहीं होती तब तक अहं, ममत्व एवं भूठा अभिमान नष्ट नहीं होता। अनेकान्त दृष्टि नहीं पाती । शास्त्रज्ञान, राग-द्वेष को शांत नहीं कर सकता। फलतः साधु जीवन में भी अपनी झूठी मान-मर्यादा और महत्त्व को टिकाये रखने के लिये निरर्थक कलेश की उदीरणा कर लेते हैं । तथा गच्छ कदाग्रह में पड़कर अपनी अपनी मान्यताओं का पोषण और दूसरों की मान्यताओं का खण्डन कर समाज में द्वेष और क्लेश का वातावरण उत्पन्न करते हैं। श्रीमद् अपने गच्छ और परम्परा के प्रति श्रद्धालु होते हुए भी प्रात्मा को कलुषित करने वाले झूठे ममत्त्व में कभी नहीं पड़े। समर्थ विद्वान होते हुए भी कभी किसी के प्रति क्लेशपूर्ण उद्गार नहीं निकाले । सच्चे स्यावादी
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