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[ नधासी] - 'सहुस्थापे अहमेव' के युग में आपने तत्त्वज्ञानपूर्ण ग्रन्थों, भक्ति से भरे स्तवनों एवं वैराग्यपूर्ण सम्झायों आदि के रूप में जो भेंट दी वह समाज की अनमोलनिधि है। न मालूम कितने भाग्यशाली आत्मा उनके ज्ञानसुधासिन्धुर में अवगाहन कर अजर, अमर, अविनाशो बनेंगे। वस्तुतः उनके ग्रन्थों का चिन्तन, मनन और अनुशीलन प्रात्मस्वरूप का भान कराने में परम सहायक हैं । - श्रीमद् का जीवन इन्द्र-धनुष की तरह बहुरंगी एवं विराट है। इतना कुछ लिखने पर भी उनके जीवन के कई पहलू अछूते रह जाते हैं। अतः उनके व्यक्तित्व का साक्षात्कार करने के लिये उनके ज्ञानसमुद्र में डुबकियां लगाना ही आवश्यक है । इसलिये, मुमुक्षु आत्माओं से मेरा नम्र अनुरोध है कि दृष्टिराग का स्यागकर श्रीमद् के ग्रन्थों का अध्ययन-मनन करें और आत्मदशा का भान कर शिव सुख का वरण करें।
श्रीमद् का जीवन-चरित्र लिखते लिखने कई बार मुझे कालिदास का वह कायम याद आता रहा कि
क्व सूर्य प्रभवो वंश, क्व चाप विषयाः मतिः । त्तितीर्ष दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् ।। कहां उनके व्यक्तित्व की भव्यता ! और कहां मेरी प्रशता ! कहां उनके कृतित्व की महानता !
और कहां मेरे शब्दों की तुच्छता ! उनके 'सागरगंभीर' व्यक्तित्व की मेरो अल्पमति से थाह पाने का प्रयत्न करना मेरा दुस्साहस ही होगा, किन्तु वाचकवर्य 'उमास्वातिजी' ने जो कहा है कि
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