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[ सित्तहत्तर ] "शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी, मुज थी कहिय न जायजी ॥" क्योंकि सारा विश्व विधान (Cosmic Order) उनकी आज्ञा के आधीन' है।
"द्रव्य क्षेत्र ने काल भाव गुण, राजनीति ए चार जी।
त्रास विना जड़-चेतन प्रभुनी, कोई न लोपे कार जी॥" अतः उन्हें पूर्ण विश्वास है कि अनंत प्रभुता सम्पन्न प्रभु को समर्पित होने में ही उनका कल्याण है।
एम अनंत प्रभुता सद्दहतां, अर्चे जे प्रभु रूपजी। देवचन्द्र प्रभुता ते पामे, परमानंद स्वरूपजी ।।
|| शीतल जिन-स्तवन ।
प्रभु को समर्पित होने में ही सच्चा आनन्द है, यह बतलाते हुए कवि के हृदय की भक्ति धारा फूट पड़ती है।
मोटा ने उत्संग, बैठा ने सी चिन्ता ।
तिम प्रभु चरण पसाय, सेवक थया निश्चिन्ता ॥ अर्थात् बड़ों के गोद में बैठे को क्या चिन्ता है ? वैसे प्रभु के आश्रय में भक्त
निश्चिन्त है।
प्रभु के प्रति उनके श्रद्धा समर्पण में अन्य किसी को जरा भी अवकाश नहीं है। उनके तो एक ही साहिब है।
१- अर्थात् प्रभु की ज्ञान-परिणति से विपरीत संसार का कोई भी पदार्थ चाहे
वह जड़ हो, चाहे चेतन हो, कदापि परिणत नहीं होता।
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