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[ उनासी । - भक्त कवि की कोमल-भावनामों का माधुर्य देखिये
"प्रभु जीव-जीवन भव्यना, प्रभु मुज जीवन-प्राण । ताहरे दर्शने सुख लहैं, तूं ही ज गति स्थिति जाण ॥ धन्य तेह जे नित प्रह समे, देखे श्री जिनमुख चंद ।
तुज वाणी अमृत रस लही, पामे ते परमानंद ॥" प्रभु को पाकर उनकी सारी मिथ्या वासना एवं वितृष्णा दूर हो गई है । उन्हें और कुछ भी नहीं चाहिये
"दीठो सुविधि जिमंद, समाधिरसे भर्यो हो लाल || स.॥
भास्यो आत्मस्वरूप, अनादिनो बीसों हो लाल ।.।। कवि केवल भगवद् स्वरूप को ही भक्ति का आधार मानकर नहीं चल रहे हैं। अपितु प्रभु के सौन्दर्य-निरूपण को भी भक्ति का अंग मान कर वर्णन करते हैं ।
"जिनजी तेरा भाल विशाला सित अष्टमी शशी सम सुप्रकाशा, शीतल ने अणियाला ।
"अति नीके भ्र जिनराज के । अंक रत्न द्युति सब हारी, श्याम सुकोमल नाजुके ।".
"है तो प्रभु ! वारी छु तुम मुखनी भ्रमर अर्ध शशी, धनुह कमल दल, कीर हीर पूनम शशी की।
शोभा तुच्छ थई प्रभु देखत, कायर हाथ जेम पसिनी ॥" भ्रमर से लेकर पूनम शशि तक के पाठ उपमान एक ही पंक्ति में देकर कवि ने अपने अनूठे रचना कौशल का परिचय दिया है। ये उपमान क्रमशः प्रभु के केश, भाल, 5 , नेत्र, नासिका, दांत एवं मुख के लिये प्रयुक्त हैं। नारी का
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