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[पचहत्तर]
'उनकी भक्ति-पद्धति के बारे में कुछ विचार कर लेना ठीक रहेगा। क्योंकि उनकी शैली अन्य कवियों से सर्वथा भिन्न है। उनकी भक्ति पर जैन- तत्वज्ञान का गहरा प्रभाव नजर आता है। फलत: आपकी भक्ति में, दूसरे कवि जैसे भावावेश में जैनत्व को भूला गये हैं, वह बात नजर नहीं आती।
- ईश्वर विषयक जैन एवं जनेतर दृष्टिकोण में मूलभेद यही है कि वे ईश्वर को एक सृष्टिकर्ता एवं फलप्रदाता मानते हैं। जब कि जैन मान्यतानुसार इस पद का ठेका किसी एक व्यक्ति का नहीं होता किन्तु कोई भी व्यक्ति साधना द्वारा प्रात्मविकास कर, इस पद को पा सकता है । ईश्वरत्व प्राप्त कर लेने पर फिर कुछ करना शेष नहीं रहता। अतः वे न किसी पर रीझते हैं, न किसी पर खीझते हैं। न किसी को तारते हैं, न किसी को रुलाते हैं। प्रत्येक जीव अपने भले बुरे के लिये स्वतन्त्र है। वह अपने ही कर्मों के फलस्वरूप सुख - दुःख को भोगता है एवं अपने ही प्रयत्नों द्वारा कर्मों से मुक्त हो स्वयं परमात्मा बन जाता है। __ तब प्रश्न होता है कि प्रभु भक्ति क्यों की जाय ? क्योंकि वे वीतराग हैं। वे न किसी को तारते हैं, न कि किसी को डुबाते हैं ।
___ इसका समाधान यह है कि-कार्यसिद्धि के दो कारण है-एक उपादान, दूसरा निमित्त । यद्यपि मूल कारण तो उपादान ही है, तथापि निमित्त का स्थान भी कार्यनिष्पत्ति में महत्वपूर्ण है। मुक्ति का उपादान कारण तो स्वयं आत्मा है, अर्थात् घात्मा का प्रयत्न एवं पुरूषार्थ है किन्तु प्रभु भक्ति आदि आत्म शुद्धि में निमित्त होने के नाते अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उपादान की शुद्धता एवं विकास के लिये निमित्त का अवलम्बन आवश्यक है और वहीं भक्ति का अवकाश है। प्रभु से हमें न कुछ लेना है
कुछ मांगना । किन्तु उनका दर्शन कर अपने स्वरुप का दर्शन करना है। उनका गुणगान कर अपने गुणों को संवारना है । उनके जीवन व उपदेशों से प्रेरणा ग्रहण
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