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[तिहत्तर ] वियोग का यह वर्णन कितना स्वाभाविक है--
संशय छेदक बीरनो रे, विरह ते केम खमाय । जे दीठे सुख उपजे रे, ते विण केम रहेवाय रे ॥
- वीरप्रमु सिद्ध थया...........गौतम स्वामी के शब्दों में विरह व्यथा- हे प्रभु मुंज बालक भरणीजी, स्ये न जणायु प्राम ।
मूकी स्यें मने केगलोजी, ए निपाव्यो काम नाथ जी मोटो तू आधार । वियोगिनी राजुल की, विरह व्यथा देखिये
"वालाजी वीनतड़ी एक मारी, धीरू बोले राजुल नारी रे । है दासी छु श्री. प्रभुजीनी, प्रभु छो पर उपकारी रे ॥१॥
प्रभु के वियोग में राहुल की दयनीय दशा देखिये । प्रकृति के सुखद भाव भी, उसके लिये दुखदायी हो गये हैं । मेघघटा, पपीहा का पिउ-पिउ बोलना, जलधारा, विजली, मन्द पवन आदि प्रकृति के कोमल रूप उसके लिये कठोर बन गये हैं। "पायो री घनघोर घटा करके (२) रहत पपीहा पिउ पिउ पिउ पिउ सर धरके ॥१॥
वादर चादर नभ पर छाइ, दामिनी दमतकी झरके । - मेघ गंभीर गुहिर अत्ति गाजे, विरहिनी चित्त थरके ॥
व्यवहारिक दृष्टान्तों के द्वारा अपने भावों को स्पष्ट और पुष्ट करने की आपको क्षमता देखिये
अजकुलगत केसरी लेहरे, निजपद सिंह निहाल । तिम प्रभु भक्त भवि लेह रे, आतम शक्ति संभाल ।।
अजित जिन तारजो रे............
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