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[ इकहत्तर श्रीमद की कवित्त्व-शक्ति--
श्रीमद् की रचनायें द्रव्यानुयोग एवं अध्यात्म-प्रधान होने से उनमें अलंकारिक काव्य कला का दर्शन यद्यपि पदे पदे नहीं होता, तथापि भक्ति-स्तवनों के रूप में जो अमूल्य प्रसादी उन्होंने दी उसमें उनकी कवित्त्व शक्ति का अच्छा दर्शन हो जाता हैं। तथा उनकी कवित्त्व-शक्ति को कुछ मौलिक विशेषतायें सामने आती हैं।
सर्वोच्च-दार्शनिक तत्त्वों को भी गीतिका में बाँधकर सहजभाव से सरस बनादेना यह श्रीमद् द्वारा ही संभव हो सका है। आपकी चौबीसी का प्रथम स्तवन 'ऋषभ जिणंदशुप्रीतड़ी' तर्क, पांडित्य और कवित्त्व-शक्ति का बेजोड़ नमूना है।
ऋषभ जिणंद शु प्रीतड़ी,
केम कीजे हो कहो चतुर विचार । इसके द्वारा, प्रभु वीतराग है, उनसे प्रेम कैसे हो सकता है। इस प्रश्न को उपस्थित कर प्रेम करने की सभी संभावनाओं की उत्त्प्रेक्षा करते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। किन्तु जैनदर्शन की रीति नीति सबको अस्वीकृत कर देती हैं। फिर स्वयं ही चतुर-भाषा में समाधान कर देते हैं कि -
प्रीति अनंती पर थकी, जे तोड़े होते जोड़े एह । परम पुरूषथी रागता, एकत्त्वता हो दाखी गुणगेह ।।
आपकी उपमायें वास्तव में अनुपम हैं । व्यावहारिक-झोत्र से संचित किये गये उपमानों को धर्म और दर्शन की व्याख्या के लिये उपयोगी बना लेना श्रीनद् की निजी विशेषता है। साथ ही वे उपमान कितने सटीक हैं, इसका उदाहरण देखिये प्रभु के स्तवन में
'बीजे वृक्ष अनंततारे लाल, प्रसरे भूजल योगरे वाल्हेसर । तिम मुज प्रातम संपदा रे लाल, प्रगटे जिन संयोग रे ।। वालं सर ।।
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