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[ सत्तर ] भाषा-साहित्य की विपुल सेवा को है तथा भाषा-विज्ञान को दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सामग्र प्रस्तुत की है। जन्मजात राजस्थानी होते हुए भी गुजराती भाषा में प्रापर्क परिपक्वता आश्चर्यजनक हैं।
आपके गद्य और पद्य दोनों ही भाषा को क्लिष्टत्ता और कृत्रिमता से दूर सरल और भाववाहो हैं। आपकी शैली सरल, सुबोध टंकसाली सोना हैं। नो कुर कहना है, उसे अल्प और अनुरूप शब्दों में कह दिया है। कहीं भी दिखावे को स्थान नहीं है। गुजरातो गद्य के व्यवस्थित विकास से देढ़ (१५०वर्ष) सदी पूर्व सफलता साथ गद्य लिखकर गुर्जरगिरा पर आपने अनहद उपकार किया है । श्रीमद् का संगीत ज्ञान--
आबाल-गोपाल को संगीत जितना आकर्षित कर सकता है, उतना और कोई शास्त्र नहीं कर सकता। भावों को तन्मय कर देने की जो शक्ति संगीत में है अन्य किसी में नहीं। इसीलिये तो भाषा-साहित्यकारों ने जन साधारण को आकृष्ट करने के लिये अपने भावों को विविध राग-रागिनियों में गूथा है।
श्रीमद् ने भी संगीत को प्रभावशालोता को खूब पहिचाना और अपनी भक्ति वैराग्य और उपदेश को उन्मुक्त गंगा-प्रवाह से निर्मल गेय-गीतों के रूप में खूब बहाया है।
आपका राग रागिनी विषयक ज्ञान भी अच्छा था। आशावरी, धन्याश्री मारू गोडो, होरो, वेलावल, इत्यादि शास्त्रीय (Classical) राग-रागिनियों के साथ गुजराती, मारवाड़ी. मेवाड़ी आदि देशों में प्रसिद्ध देशियों का भी अच्छा ज्ञान था।
राग-रागिनियाँ और देशियों के अलावा संस्कृत-प्राकृत और हिन्दी के दोहा सेवया, कवित्त उल्लाला चौपाई आदि छन्दों के ज्ञान में भी आपने अच्छी निपुणत प्राप्त की थी।
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