________________
[ उन्हत्तर ] हे । अतः रचना में गुजराती का आना स्वाभाविक ही था। भ्रमणशील-जीवन होने के नाते अन्य भाषायें जैसे मराठी, अपभ्रंश, व्रज इत्यादि के शब्दों का भी प्रयोग होना स्वाभाविक ही था।
आपकी स्नात्रपूजा स्तवन-एवं सन्झायों में प्रयुक्त तुमचो, अमचो, अम इम मभिसेस 'उच्छम' इत्यादि शब्द मराठी और अपभंश के हैं। 'द्रव्यप्रकाश' तो जभाषा बहुल ही है । देखिये श्रीमद् को ब्रजभाषा पटुता
पापको न जाने, परभाव ही को प्रापा माने, गहि के एकांत-पक्ष माच्यो हे गहल में । भरम में पर्यों रहे, पुन्यकर्म ही को चेत वहे अहंबुद्धि भाव थंभ ज्यु महल में । कुगतिसु डरे सद्गति ही की इच्छा करे, करनी में थिर हो के चाहे मोक्ष दिल में, स्याद्वाद भाव बिनु ऐसो जो मिथ्यात्त्व भाव ।
हेयरूपी कह्यो ज्ञानभाव के अदल में, इस प्रकार श्रीमद् का भाषा-ज्ञान विस्तृत है। कहीं कहीं तो एक ही गाथा में गुजरातो, संस्कृत-तत्सम, प्राकृत एवं राजस्थानी का सफल प्रयोग किया है।
खिये
श्री तोर्थपतिनो कलस मज्जन, गाइये सुखकार ।
नर-खित्त मंडण दुह विहंडण, भविक मन प्राधार ।। 'तीर्थपत्ति नो' में गुजराती प्रत्यय है। 'मज्जन संस्कृत तत्सम शब्द है। वित्त' 'दुह' और 'विहंडन' प्राकृत है, शेष सब राजस्थानी है। संस्कृत प्राकृत के काण्ड विद्वान् होते हुए भी हिन्दी, राजस्थानी एवं गुजराती में लिखकर आपने
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org