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[ इक्यावन ] श्रीमद् को पद्य कृतियाँ--
गद्यकृतियों की अपेक्षा श्रीमद् की पद्य कृतियाँ विशाल संख्या में हैं। आपने पद्य में लम्बे काव्यों से लेकर संख्याबद्ध छोटे-छोटे गीतिकाव्यों तक की रचना भी की है। अध्यात्म गीता
'आत्मा' और 'उसकी मुक्ति'-ये जैन दर्शन के तात्त्विक विवेचन के दो मुख्य मुद्दे हैं। सारा विवेचन इन्ही दो के स्वरूप, साधन, शुद्धता एवं अशुद्धता के इर्द-गिर्द धूमता है। प्रस्तुत 'अध्यात्मगीता' ऐसी ही एक आध्यात्मिक रचना है। इसकी शैली दार्शनिक है। इसमें नय, निक्षेप, और प्रमाणों के द्वारा आत्मस्वरूप की विवेचना की गई है। साथ ही धर्म-अधर्म की चर्चा के साथ सत्संगप्रेरणा कर्मबन्ध क्यों और कैसे होता है का विवेचन है। कर्मबंध से मुक्त होने के क्या उपाय हैं। इत्यादि विषयों पर भी इस ग्रन्थ में सुन्दर विचारणा हुई है।
धर्म-अधर्म की व्याख्या करते हुए श्रीमद् ने सचमुच 'गागर में सागर' समा दिया है । 'आत्मगुण-रक्षणा तेह धर्म, स्वगुण विध्वंसणा ते अधर्म' जैनधर्म की साधना आत्मकेन्द्रित है। प्रात्मा के उपयोग के बिना चाहे कितनी भी क्रिया क्यों न की जाय, जन्म-मरण के दुखों से छुटकारा नहीं हो सकता । श्रीमद् के शब्दों में
"एम उपयोग वीर्यादि लब्धि, परभावरंगी करे कर्मवृद्धि ।
परदयादिक यदा सुह विकल्पे, तदा पुण्य कर्म तणो बंध कल्पे ।। 'प्राध्यात्मगीता' के भावों का उपदेशक कौन हो सकता है ? इसका उत्तर हुए तीसरे पद्य में आपने कहा है कि- 'जेणे प्रातमा शुद्धतांइ पिछाण्यो, तिणे लोक प्रलोक नो भाव जाण्यो। । आत्म-रमणी मनि जग विदिता, उपदीसुतेरण अध्यात्म गीता ।।
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