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[छासठ ]
स्थान-स्थान पर ज्ञानसारजी ने अपनी लघुता बताते हुए, स्वतन्त्र समालोचना भी की है। अपनी समालोचना में उन्होंने श्रीमद् को महापण्डित, महाकविराज आदि विशेषणों द्वारा संबोधित किया है और यहाँ तक लिखा है कि'ए वर्तमान विस्सै वरसो ना काल मां एहवा कविराजान अन्य थोड़ा गिरणाय तेहवा थया ने जारणपणो पण अति विशेष हतू नै हूं महामंद बुद्धि शास्त्र नो परिज्ञान किमपि नहि लेहथी छोटे मुहे मोटामोनी बात किम लिखाय पण श्रावक ने अति प्राग्रह में टब्बो करवा मांडयो।" ज्ञानसारजी का यह बालावबोध मर्मस्पर्शी पौर बोधदायक है।
ज्ञानसारजी के बाद तपागच्छ के अमी कुंवर जी ने सं० १८८२ की आषाढ़ वदी २ को पाली नगर की श्राविका लाडूबाई के पठनार्थ बालाबवोध की रचना की जो कि 'अध्यात्म ज्ञानप्रसारक मंडल' पादरा से सं० १९७८ में श्रीमद् के 'आगममार' के साथ प्रकाशित हो चुका है। तीसरा टब्बा सूरत में श्री मोहनलालजी के ज्ञान भंडार में है । अज्ञातकर्तृक चौथा टब्बा “देवचन्द्र भाग-२" में प्रकाशित है।
कुछ ही वर्षों पूर्व इस पर गुजराती विवेचन मुनि श्री कलापूर्ण विजयजी (अभी वागड़ सम्प्रदाय के प्राचाय हैं) ने लिखा जो डा० उमरसी पूनसी देढिया ने अंजार से प्रकाशित किया है । हिन्दी भाषा में इसका सरल और संक्षिप्त विवेचन श्री केशरीचन्दजी धूपिया का सं० २०२६ में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ जिसमें विद्वान् मनीषी श्री अगरचन्दजो नाहटा ने भूमिका लिखी है।
श्रीमद् को स्नात्रपूजा पर प्रथम हिन्दी अनुवाद श्री चन्दनमलजी नागौरी ने व दूसरा श्री उमरावचन्दजी जरगड़ ने किया। ये दोनों ही अनुवाद जिनदत्तसूरि सेवा सघ बम्बई से प्रकाशित हो चुके हैं। श्रीमद् की पत्तमान चौबीसी' का भी संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद जरगड़ जी ने ही किया है। वह भी उक्त संस्था से ही प्रकाशित है।
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