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[ उनचास ) मदि ज्ञानसार उपाध्याय यशोविजयजी के प्रौढ प्राध्यात्मिक ज्ञानरस का अमृतकुण्ड है तो ज्ञानमंजरी उपाध्याय देवचन्द्रजी के परिपक्व आध्यात्मिक जीवनरस की बहती हुई सरिता है । ज्ञानसार और ज्ञानमंजरी का सुमेल वस्तुतः सोने में सुगन्ध जैसा है ज्ञानसार पर टीका रचकर श्रीमद् ने वास्तव में ग्रन्थ की महत्ता एवं उपयोगिता को बढ़ाया है । टीका सर्वत्र उपाध्यायजी के भावों का अनुगमन करती हैं। कहीं कहीं श्रीमद् ने अपने स्वतन्त्र चिन्तन द्वारा उनके भावों को पुष्ट करने का भी प्रयास किया है। जहाँ, तहाँ प्रयुक्त विषयसंबंध सूक्तियाँ एवं दृष्टान्त विषय को और अधिक स्पष्ट कर देते हैं । ज्ञानसार और ज्ञानमंजरी को पढ़ते पढ़ते जो आत्मिक आनन्द का अनुभव होता है वह अवर्णनीय है। शाब्दिक अलंकरण की अपेक्षा इसका भाव बड़ा गंभीर है। अतः ज्ञानसारग्रन्थ की गहराई तक पहुँचने के लिये इसका अभ्यास, अवश्य करना चाहिये । इसका रचना जामनगर में संवत् १७६६ की का० सु० ५ को हुई थी।
७. कर्मग्रन्थ-स्तबक- कर्म के संबंध में जिस सूक्ष्मता से जैन दर्शन में विचार किया गया वैमा अन्य किसी भी दर्शन में नहीं हुमा । श्वेतांबर और दिगम्बर दानों ही परम्परा में इस विषय पर विपुल साहित्य लिखा गया है। साधारण लोग भी कम फिलोसॉफी के विषय में कुछ समझे इसके लिये सरल से सरल तरीके अपनाये गए । श्रीमद् ने भी यह बात ध्यान में रखते हुए श्री देवेन्द्रसूरिकृत पांचों कर्मग्रन्थ (प्राकृत में हैं) पर भाषा में एक सरल टबा लिखा है। 5. गुरूगुरगर्जिशिका स्तबक--
गुरू अर्थात् प्राचार्य, वे सामान्यतया छतोमगुण युक्त होते हैं। इन्हीं खत्तीस गुणों को छत्तीस तरह से इस ग्रन्थ में बताया है । मूलग्रन्थ (प्राकृतगाथाबद्ध) त्रिी वज्रस्वामी के प्रशिष्य एवं वज्रसेनसूरि के शिष्य द्वारा निर्मित है । इस पर
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