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[ तिरेपन ] को जिसने १९ वर्ष की लघुवय में, ध्यान जैसे गम्भीर विषय पर बड़ी सफलतापूर्वक लिखनी चलाकर तत्त्वजिज्ञासु श्रावकों की जिज्ञासा पूर्ण की। राजस्थानी-पद्यों में इसकी रचना की गई है।
____ इस ग्रन्थ में छः खण्ड और अठ्ठावन ढालें हैं। इनमें बारह भावनायें, पंचमहाव्रत, धर्म ध्यान, शुक्लध्यान, पिंडस्थ, रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान के गूढतत्त्वों पर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। ध्यान विषयक भाषा जैनग्रन्थों में इस ग्रन्थ का विशिष्ट स्थान है।
६. द्रव्य प्रकाश
यह 'ध्यानदीपिका' से परवर्ती रचना है। यह संवत् १७६७ में बीकानेर में पूर्वोक्त मिठूमलजी भंसाली आदि के लिये ही बनाया था। यह व्रजभाषा के दोहे सवैयों में षद्रव्य को निरूपण करने वाली सरल व सरस कृति है। यह सुविदित है कि श्रीमद् की शैली तार्किक व दार्शनिक है। द्रव्यप्रकाश' में प्रापने प्रश्नोत्तर के रूप में व्यावहारिक दृष्टान्त एवं युक्तियों के माध्यम से षड्द्रव्य का सुन्दर स्वरूप बताया है। आत्मनिरूपण में तो आत्मा के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताओं को रखकर अच्छी दार्शनिक चर्चा प्रस्तुत की है।
वस्तुत: श्रीमद् के हृदय में मत-फन्द, प्राग्रह और कदाग्रह की दुर्गन्ध से रहित शुद्ध आत्मस्वरूप ही बसता था। उनकी रग-रग में प्रात्मरस ही बहता था, अतः उनकी वाणी से सदा यही प्रवाहित हुआ । 'द्रव्यप्रकाश' के अन्तिम पद्य से यह स्वतः स्पष्ट है।
"परसु प्रतीत नाहि, पुण्य पाप भोति नाहिं, रागदोस रीति नाहिं, आतम् विलास है।
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