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[ बावन ] जगतप्रसिद्ध आत्म-रमणी मुनि ही इसके भावों के उपदेशक है।
आपने पैतालोसवें पद्य में जैनधर्म को पहिचानकर प्रात्मानंद को प्राप्त करने की सुन्दर प्रेरणा दी हैं।
'अहो भव्य तुमे पोलखो जैनधर्म, जिणे पामिये शुद्ध अध्यात्म शर्म । अल्पकाले टले दुष्ट कर्म, पामीयें सोय अानन्द मर्म ।।'
तीसरे पद्य में श्रीमद् ने इसका नाम 'अध्यात्म-गीता' दिया एवं ४६ वें पद्य में इसका अपरनाम 'प्रात्मगीता' दिया। इसकी रचना का उद्देश्य बतलाते हुए उन्होंने स्वयं कहा है कि
"आत्मगुण रमण करवा अभ्यासे, शुद्ध सत्ता रसी ने उलासे । 'देवचंद्रे' रची प्रात्मगीता, आत्मरंगी मुनि सुप्रतीता ।।" आपने इसकी रचना लीबड़ी के चातुर्मास में की थी।
'अध्यात्मगीता' वस्तुतः नय-निक्षेप द्वारा आत्मा को जानने और प्रात्मस्वरूप के साधन बतलाने में बहुत ही मूल्यवान् और प्रेरणादायक रचना है। इसका एक-एक पद्य बड़ा गम्भीर है। यह एक प्रात्मानुभवी सन्त की स्वतः स्फूर्त (Spontonious) सात्त्विक वाणी की अमूल्य प्रसादी है। इस रचना का प्रचार भी खूब हुआ । इसकी बहुतसी हस्तलिखित प्रतियाँ यत्र तत्र भण्डारों में पाई जाती हैं । एक स्वर्णाक्षरी प्रति भी है। इस पर कईयों ने बालावबोध, टबाथ आदि लिखे हैं। इससे स्पष्ट हैं कि इस रचना को कितना लोकादर मिला है। १. ध्यानदीपिका चतुष्पदी
यह आपकी सर्व प्रथम कृति है। इसकी रचना सं. १७६६ में मुलतान शहर में, मिमलजी भंसाली आदि तत्वरसिक श्रावकों के आग्रह से की थी। इसकी रचना के समय आपकी उम्र सिर्फ १६ वर्ष की ही था। धन्य है उस जन्मयागी
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