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[ इकसठ ]
१३. गजसुकुमाल - सज्झाय
इस सभा की तीन ढालें है। प्रथम ढाल में श्री कृष्ण के छोटे भाई गजसुकुमाल का भगवान् नेमिनाथ का उपदेश सुनकर वैरागी बनने का वर्णन है । दूसरी ढाल में माता देवकी और गजसुकुमाल के राग-विराग का द्वन्द्व और अन्त में, कुमार का विजय होना है। तीसरी ढाल में कुमार की दीक्षा और साधना का वर्णन है । भगवान् का उपदेश सुनकर गजसुकुमाल को वैराग्य हो जाता है, इसका वर्णन श्रीमद् के शब्दों में
"नेमि वचन जाग्यो वड़वीर धीर वचन भाषे गम्भीर | देहादिक ए मुजगुरण नांहि, तो केम रहेवु मुज ए मांहि ॥ जेह थी बंधाये निजतत्त्व, तेह थी संग करे कुरण सत्त्व । प्रभुजी रहेवु करी सुपसाय, हुँ प्रावु माता समजाय ॥
गजसुकुमाल जिन शब्दों में माता से अनुमति मांगते हैं वे उनके तीव्र वैराग्य के सूचक है ।
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'माताजी अनुमति आपीये, हवे मुझ एम न रहाय रे । एक खिरण अविरत दोष नी, बातडी वचन न कहाय रे ॥
माता संयम की दुष्करता दिखाकर बालक को रोकना चाहती है, तब गजसुकुमाल ने जो कुछ कहा वह बड़ा मार्मिक है । उसके आगे माता के कुछ कहने का अवकाश ही नहीं रखा।
'मातजी निजघर प्रांगणे, बालक रमे निरबीह रे । तेम भुज प्रातम धर्म में, रमरण करतां किसी बीह रे ।' मथी कोई अधिको हुवे, मानीये तास वचन्न रे । माताजी कांई नवि भाखिये, माहरे संयमे मन्न रे ।।
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